Tuesday, 11 July 2017

मैं अब थक चुकी हूँ


मैं अब थक चुकी हूँ
नफरत नाइंसाफी नहीं सही जाती अब।
बस बहुत हो चुका
अब मैं खामोश नहीं रहूंगी,
लोगों के ताने नहीं सहूंगी,
क्योंकि मैं इंसान हूँ, कोई मिट्टी की मूरत नहीं।
औरत हूँ तो क्या हुआ, मैं कमज़ोर नहीं।
सदिओं से मुझे दबाया गया
चार दीवारी में बिठाया गया
ज्ञान के प्रकाश से रखा दूर
समझ लिया मुझे मजबूर,
प्यार आया तो पुचकार लिया
गुस्से से मुझे धितकार दिया।
बस! अब इस बदसूलुखी का अंत होगा
और होगा एक नया आग़ाज़
नय दौर का सूरज जल्द उगेगा
आएगा मेरे जीवन में नया प्रकाश
क्योंकि मैं अब और नहीं सहूंगी,
खामोश अब मैं नहीं रहूंगी।
ऋद्धि

Sunday, 2 July 2017

क्या कभी ज़िन्दगी को करीब से देखा है ?

क्या कभी ज़िन्दगी को करीब से देखा है?
कभी सोचा है कैसी होती है ज़िन्दगी ?
सुना था की ज़िन्दगी हसीं होती है,
हँसती  मुस्कुराती होती है
आज पता चला कितनी भूखी होती है ज़िन्दगी।

सड़कों पर नंगे पाओं भागती,
दो वक़्त की रोटी को तरस्ती,
धूप में तपती ज़िन्दगी।

रेड लाइट के कोने में हाथ फैलाती ,
कूड़े के ढ़ेर को छाँटती,
फुट पाथ पर सोती ज़िन्दगी।

ख़ुशी की उम्मीद में तरसती ,
नन्हे हाथों से झूठन समेटती,
पाई पाई की मोहताज ज़िन्दगी
क्या कभी देखी है तुमने ?

वो महलों में नहीं बसती
वो बस्ती है झुगिओं में , फुट पाथ पर
पेड़ के नीचे , खुले आसमान के नीचे।
ऋद्धि 

एक  अनसुलझी पहेली                                     ऋद्धि नन्दा अरोड़ा  वो  मनचाही, मनचली, तितलिओं में रंग भरती, बादलों के पीछे भागती, खुशी...